सामाजिक मान मर्यादा, पारिवारिक मूल्य एवं परम्पराओं का यही महत्व है जिससे मानव समाज में एक रूपता, लयबद्धता एवं समरसता बनी है.
हिन्दू धर्म में; सद्गृहस्थ की, परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक परिपक्वता आ जाने पर युवक-युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है। समाज के सम्भ्रान्त व्यक्तियों की, गुरुजनों की, कुटुम्बी-सम्बन्धियों की, देवताओं की उपस्थिति इसीलिए इस धर्मानुष्ठान के अवसर पर आवश्यक मानी जाती है कि दोनों में से कोई इस कत्तर्व्य-बन्धन की उपेक्षा करे, तो उसे रोकें और प्रताड़ित करें। पति-पत्नी इन सन्भ्रान्त व्यक्तियों के सम्मुख अपने निश्चय की, प्रतिज्ञा-बन्धन की घोषणा करते हैं। यह प्रतिज्ञा समारोह ही विवाह संस्कार है। विवाह संस्कार में देव पूजन, यज्ञ आदि से सम्बन्धित सभी व्यवस्थाएँ पहले से बनाकर रखनी चाहिए।
दान में श्रद्धा, विश्वास, मर्यादा एवं संतुलन भरा रहता है.
कन्यादान के समय जो सप्तपदी कराई जाती है. वह ध्यान में रखना चाहिए.
अनेक भाई-बंधू, समाज के अलावा अग्नि, जल, तारे, अन्न एवं जल के साक्ष्य में सप्तपदी में कन्यादान के पहले वर-वधु को एक दूसरे के प्रति वचन वद्ध किया जाता है.
कन्या वर से वचन लेती है-
मै कोई भी पूजा, यज्ञ, व्रत, दान आदि करूँ, उसमें आप कोई रुकावट नहीं डालेगें. बल्कि उसकी पूर्ती हेतु उसमें मेरा सहयोग देगें. मैं यदि अपने मा-बाप के घर जाऊं, किसी उत्सव, समारोह में भग लूं, आप कोई प्रतिबन्ध नहीं लगायेगें. आप जो भी कमाई करेगें वह सब लाकर मेरे हाथ पर रख देगें. मुझसे कुछ भी नहीं छिपायेगें. यदि यह स्वीकार है तों मैं आप क़ी भार्या बनने को तैयार हूँ.
वर कन्या से वचन लेता है-
तुम मा-बाप के घर के सिवाय और कही भी जाओगी, बिना मेरी अनुमति के नहीं जाओगी. यदि मैं घर पर न रहूँ, तुम कोई भी नया श्रृंगार नहीं करोगी. पर पुरुष के सम्मुख नहीं जाओगी. और न ही उनसे किसी तरह का सम्बन्ध या संपर्क बनाओगी. सुन्दर एवं यशस्वी संतान को जन्म देने में मेरा सदा सहयोग करोगी. आदि. तुम्हें भी यदि ये वचन स्वीकार है तों मै तुझे भार्या के रूप में स्वीकार करने के लिये तैयार हूँ.
इसके बाद सिन्दूर-दान, लाक्षा हवन एवं पाणि-ग्रहण किया जाता है.
शिक्षा एवं प्रेरणा
कन्यादान के समय कुछ अंशदान देने की प्रथा है । आटे की लोई में छिपाकर कुछ धन कन्यादान के समय दिया जाता है । दहेज का यही स्वरूप है । बच्ची के घर से विदा होते समय उसके अभिभावक किसी आवश्यकता के समय काम आने के लिए उपहार स्वरूप कुछ धन देते हैं, पर होता वह गुप्त ही है ।
अभिभावक और कन्या के बीच का यह निजी उपहार है । दूसरों को इसके सम्बन्ध में जानने या पूछने की कोई आवश्यकता नहीं ।
दहेज के रूप में क्या दिया जाना चाहिए, इस सम्बन्ध में ससुराल वालों को कहने या पूछने का कोई अधिकार नहीं । न उसके प्रदशर्न की आवश्यकता है, क्यों कि गरीब-अमीर अपनी स्थिति के अनुसार जो दे, वह चर्चा का विषय नहीं बनना चाहिए, उसके साथ निन्दा-प्रशंसा नहीं जुड़नी चाहिए ।
एक-दूसरे का अनुकरण करने लगें, प्रतिस्पर्द्धा पर उतर आएँ, तो इससे अनर्थ ही होगा । कन्या-पक्ष पर अनुचित दबाव पड़ेगा और वर-पक्ष अधिक न मिलने पर अप्रसन्न होने की धृष्टता करने लगेगा । इसलिए कन्यादान के साथ कुछ धनदान का विधान तो है, पर दूरर्दशी ऋषियों ने लोगों की स्वाथर्परता एवं दुष्टता की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए यह नियम बना दिया है कि जो कुछ भी दहेज दिया जाए, वह सर्वथा गुप्त हो, उस पर किसी को चर्चा करने का अधिकार न हो ।
आटे में साधारणतया एक रुपया इस दहेज प्रतीक के लिए पयार्प्त है । यह धातु का लिया जाए और आटे के गोले के भीतर छिपाकर रखा जाए ।
कन्यादान का अर्थ है-
अभिभावकों के उत्तरदायित्वों का वर के ऊपर, ससुराल वालों के ऊपर स्थानान्तरण होना । अब तक माता-पिता कन्या के भरण-पोषण, विकास, सुरक्षा, सुख-शान्ति, आनन्द-उल्लास आदि का प्रबंध करते थे, अब वह प्रबन्ध वर और उसके कुटुम्बियों को करना होगा । कन्या नये घर में जाकर विरानेपन का अनुभव न करने पाये, उसे स्नेह, सहयोग, सद्भाव की कमी अनुभव न हो, इसका पूरा ध्यान रखना होगा । कन्यादान स्वीकार करते समय-पाणिग्रहण की जिम्मेदारी स्वीकार करते समय, वर तथा उसके अभिभावकों को यह बात भली प्रकार अनुभव कर लेनी चाहिए कि उन्हें उस उत्तरदायित्व को पूरी जिम्मेदारी के साथ निबाहना है । कन्यादान का अर्थ यह नहीं कि जिस प्रकार कोई सम्पत्ति, किसी को बेची या दान कर दी जाती है, उसी प्रकार लड़की को भी एक सम्पत्ति समझकर किसी न किसी को चाहे जो उपयोग करने के लिए दे दिया है । हर मनुष्य की एक स्वतन्त्र सत्ता एवं स्थिति है । कोई मनुष्य किसी मनुष्य को बेच या दान नहीं कर सकता । फिर चाहे वह पिता ही क्यों न हो । व्यक्ति के स्वतन्त्र अस्तित्व एवं अधिकार से इनकार नहीं किया जा सकता, न उसे चुनौती दी जा सकती है । लड़की हो या लड़का अभिभावकों को यह अधिकार नहीं कि वे उन्हें बेचें या दान करें । ऐसा करना तो बच्चे के स्वतन्त्र व्यक्तित्व के तथ्य को ही झुठलाना हो जाएगा ।
विवाह उभयपक्षीय समझौता है, जिसे वर और वधू दोनों ही पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ निर्वाह कर सफल बनाते हैं ।
यदि कोई किसी को खरीदी या बेची सम्पत्ति के रूप में देखें और उस पर पशुओं जैसा स्वामित्व अनुभव करें या व्यवहार करें, तो यह मानवता के मूलभूत अधिकारों का हनन करना ही होगा । कन्यादान का यह तात्पर्य कदापि नहीं, उसका प्रयोजन इतना ही है कि कन्या के अभिभावक बालिका के जीवन को सुव्यवस्थित, सुविकसित एवं सुख-शान्तिमय बनाने की जिम्मेदारी को वर तथा उसके अभिभावकों पर छोड़ते हैं, जिसे उन्हें मनोयोगपूवर्क निबाहना चाहिए ।
पराये घर में पहुँचने पर कच्ची उम्र की अनुभवहीन भावुक बालिका को अखरने वाली मनोदशा में होकर गुजरना पड़ता है ।
इसलिए इस आरम्भिक सन्धिवेला में तो विशेष रूप से वर पक्ष वालों को यह प्रयास करना चाहिए कि हर दृष्टि से वधू को अधिक स्नेह, सहयोग मिलता रहे । कन्या पक्ष वालों को भी यह नहीं सोच लेना चाहिए कि लड़की के पीले हाथ कर दिये, कन्यादान हो गया, अब तो उन्हें कुछ भी करना या सोचना नहीं है । उन्हें भी लड़की के भविष्य को उज्ज्वल बनाने में योगदान देते रहना है । क्रिया और भावना- कन्या के हाथ हल्दी से पीले करके माता-पिता अपने हाथ में कन्या के हाथ, गुप्तदान का धन और पुष्प रखकर सङ्कल्प बोलते हैं और उन हाथों को वर के हाथों में सौंप देते हैं । वह इन हाथों को गंभीरता और जिम्मेदारी के साथ अपने हाथों को पकड़कर स्वीकार-शिरोधार्य करता है । भावना करें कि कन्या वर को सौंपते हुए उसके अभिभावक अपने समग्र अधिकार को सौंपते हैं ।
कन्या के कुल गोत्र अब पितृ परम्परा से नहीं, पति परम्परा के अनुसार होंगे ।
कन्या को यह भावनात्मक पुरुषार्थ करने तथा पति को उसे स्वीकार करने या निभाने की शक्ति देवशक्तियाँ प्रदान कर रही हैं । इस भावना के साथ कन्यादान का सङ्कल्प बोला जाए । सङ्कल्प पूरा होने पर सङ्कल्पकत्तार् कन्या के हाथ वर के हाथ में सौंप दें ।
अद्येति.........नामाहं.........नाम्नीम् इमां कन्यां/भगिनीं सुस्नातां यथाशक्ति अलंकृतां, गन्धादि - अचिर्तां, वस्रयुगच्छन्नां, प्रजापति दैवत्यां, शतगुणीकृत, ज्योतिष्टोम-अतिरात्र-शतफल-प्राप्तिकामोऽहं ......... नाम्ने, विष्णुरूपिणे वराय, भरण-पोषण-आच्छादन-पालनादीनां, स्वकीय उत्तरदायित्व-भारम्, अखिलं अद्य तव पतनीत्वेन, तुभ्यं अहं सम्प्रददे ।
वर उन्हें स्वीकार करते हुए कहें- ॐ स्वस्ति ।