जानिए, होलाष्टक के अशुभ होने की वजह, इस दौरान न करें ये 16 संस्कार
Indian Astrology | 03-Mar-2020
Views: 6508इस बार होली मंगलवार, 10 मार्च को है। होली की तिथि का निर्धारण होलाष्टक के आधार पर होता है। पौराणिक ग्रंथों में होलाष्टक को बेहद अशुभ बताया गया है। होलाष्टक के इन आठ दिनों में कोई भी शुभ कार्य करना वर्जित होता है। यदि इस दौरान कोई शुभ कार्य किया जाए तो आपको उसके उचित फल नहीं मिलते। आपकी बनती हुई बात भी बिगड़ सकती है। यहां तक कि आपके जीवन पर उसका प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ सकता है। आपको अनावश्यक कष्ट भोगना पड़ सकता है। इसलिए समझदारी इसी में है कि इस दौरान कोई भी शुभ कार्य न किया जाए। तो आइए, जानते हैं इस बार कब है होलाष्टक? आखिर क्यों होते हैं ये अशुभ दिन? इसको लेकर ज्योतिषीय समझ क्या है? इस दौरान किन कार्यों को करने पर रोक है?
क्या है होलाष्टक?
होलाष्टक का मतलब होली से पहले के आठ दिन से है। शास्त्रों के अनुसार फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से फाल्गुन पूर्णिमा तक के समय को होलाष्टक कहा जाता है। यह बेहद अशुभ समय होता है इसलिए इस दौरान कोई भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिेए। इन दिनों शुरु किए गए कार्यों से कष्ट की प्राप्ति होती है। इन दिनों हुए विवाह से दंपत्ति के वैवाहिक जीवन में अनेक समस्याएं आती हैं। रिश्तों में हमेशा अस्थिरता बनी रहती है अथवा वे टूट जाते हैं। घर में हमेशा नकारात्मकता, तनाव, अशांति, दु:ख और क्लेश का वातावरण रहता है।
होलाष्टक 2020: महत्वपूर्ण तिथियां व अशुभ समय
- होलाष्टक प्रारंभ: मंगलवार, मार्च 3, 2020
- होलाष्टक समाप्त: सोमवार मार्च 9, 2020
- अष्टमी तिथि प्रारंभ: अपराह्न 12:53 बजे (सोमवार, मार्च 2, 2020)
- अष्टमी तिथि समाप्त: अपराह्न 1:50 बजे (मंगलवार, मार्च 3, 2020)
- होलिका दहन मुहूर्त: सायं 6:26 बजे से 8:52 बजे तक (सोमवार, मार्च 9, 2020)
होलाष्टक के अशुभ होने की धार्मिक वजह
धार्मिक ग्रंथों में होलाष्टक के अशुभ होने की कई वजहें बताई गई हैं। शिव पुराण की एक कथा में इसका उल्लेख मिलता है। इस कथा के अनुसार तारकासुर का वध करने के लिए शिव और पार्वती का विवाह होना अनिवार्य था क्योंकि तारकासुर का वध शिव के पुत्र के हाथों हो सकता था। लेकिन देवी सती के आत्मदाह के बाद भगवान शिव ने दु:खी होकर खुद को तपस्या में लीन कर लिया था। दु:खी देवी-देवता भगवान शिव को इस तपस्या से बाहर निकालना चाहते थे इसलिए उन्होंने इसके लिए कामदेव और देवी रति को आगे कर दिया।
कामदेव और देवी रति ने भगवान शिव की तपस्या भंग कर दी जिससे क्रोधित होकर भगवान शिव ने अपने तीसरे नेत्र से कामदेव को भस्म कर दिया। जिस दिन कामदेव को भस्म किया गया था वह फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि थी। इस घटना के बाद आठवें दिन देवी रति और सभी देवी-देवताओं के क्षमा मांगने पर भगवान शिव ने कामदेव को पुन: जीवित कर दिया था। इसलिए ये आठ दिन अशुभ माने गए और नौवें दिन कामदेव के फ़िर से जीवित होने की ख़ुशी में रंगोत्सव मनाया गया।
एक अन्य कथा हिरण्यकश्यप और उसके पुत्र भक्त प्रह्लाद से जुड़ी है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था जबकि हिरण्यकश्यप को नास्तिक बताया गया है। उसे अपने पुत्र भक्त प्रह्लाद की भक्ति रास नहीं आती थी इसलिए उसने उसे कारागार में बंद कर दिया और उसे मारने के लिए आठ दिन तक तरह-तरह के कष्ट दिए। आठवें दिन उसे जलाने का प्रयास किया गया। हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को भक्त प्रह्लाद को लेकर अग्निकुंड में बैठ जाने के लिए कहा। होलिका को वरदान प्राप्त था कि अग्नि उसे जला नहीं सकती लेकिन फिर भी वह जल गई जबकि भक्त प्रह्लाद भगवान विष्णु की कृपा से बच गया। क्योंकि भक्त प्रह्लाद को आठ दिन तक तरह-तरह के कष्ट दिए गए थे इसलिए ये आठ दिन अशुभ माने जाते हैं और आठवें दिन होलिका दहन किया जाता है। होलिका दहन के साथ ही होलाष्टक समाप्त होता है।
होलाष्टक के अशुभ होने की ज्योतिषीय वजह
धार्मिक ही नहीं, ज्योतिषीय दृष्टिकोण से भी होलाष्टक को अशुभ माना गया है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार होलाष्टक के दौरान ग्रहों की स्थिति अच्छी नहीं रहती है। होलाष्टक के अलग-अलग दिनों में अलग-अलग ग्रह उग्र होते हैं। अष्टमी तिथि को चंद्रमा उग्र होते हैं। नवमी को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र, द्वादशी तिथि को गुरु, त्रयोदशी तिथि को बुध, चतुर्दशी को मंगल और पूर्णिमा को राहु उग्र होते हैं जिसके कारण इस दौरान इनसे निकलने वाली नकारात्मक ऊर्जा बेहद हावी होती है। इसलिए होलाष्टक के 8 दिनों को अशुभ माना गया है। इस दौरान कोई भी शुभ कार्य करने से आपको अनुकूल परिणाम नहीं मिलते। इसके अलावा इस दौरान नकारात्मक शक्तियों के प्रभाव से व्यक्ति तनावपूर्ण स्थिति में होता है और ठीक से निर्णय नहीं ले पाता। इसलिए भी इन 8 दिनों में कोई भी शुभ कार्य न करने की सलाह दी जाती है।
होलाष्टक की परंपरा
जिस दिन होलाष्टक प्रारंभ होता है उस दिन से ही होलिका दहन की भी तैयारी शुरु हो जाती है। सबसे पहले होलिका दहन की जगह चुन ली जाती है और उसके बाद प्रतीक स्वरूप वहां दो डंडे लगाए जाते हैं। एक डंडा होलिका का जबकि दूसरा डंडा भक्त प्रह्लाद के लिए लगाया जाता है। उसके पश्चात इस पर सूखी घास सूखी लकड़ियां, सूखे पत्ते और गाय के गोबर के उपले लगाए जाने लगते हैं। होलाष्टक के आखिरी दिन यानी पूर्णिमा तिथि को इसे जलाया जाता है। इसी को होलिका दहन कहते हैं। होलाष्टक के इन आठ दिनों में धर्मशास्त्रों में दिए गए 16 संस्कार समेत कोई भी शुभ कार्य करना वर्जित होता है लेकिन विभिन्न तांत्रिक क्रियाओं के लिए यह समय महत्वपूर्ण होता है। इस दौरान वे सभी कार्य किए जाते हैं जिनसे नकारात्मक ऊर्जा का नाश हो।
इन 8 दिनों में न करें ये 16 काम
शास्त्रों में गर्भाधान संस्कार से लेकर अंत्येष्टि क्रिया तक कुल 16 संस्कार का उल्लेख किया गया है। होलाष्टक के इन 8 दिनों में इनमें से कोई भी संस्कार नहीं करना चाहिए। महर्षि वेद व्यास के अनुसार ये 16 संस्कार निम्न हैं:
- गर्भाधान यानी रज एवं वीर्य के संयोग से स्त्री का गर्भ धारण करना।
- पुंसवन- स्त्री के गर्भ धारण करने के तीन महीने के पश्चात किया जाने वाला संस्कार।
- सीमंतोन्नयन- गर्भ के चौथे, छठे और आठवें महीने में किया जाने वाला संस्कार।
- जातकर्म- शिशु के स्वास्थ्य और दीर्घ आय़ु के लिए उसे शहद और घी चटाना और वैदिक मंत्रों का उच्चारण करना।
- नामकरण- शिशु का नाम रखना।
- निष्क्रमण- निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। यह संस्कार बच्चे के जन्म के चौथे माह में किया जाता है।
- अन्नप्राशन- बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात् 6-7 महीने में किया जाने वाला संस्कार।
- चूड़ाकर्म- मुंडन, यानी पहली बार सिर के बाल निकालना।
- विद्यारंभ- शिक्षा का आरंभ।
- कर्णवेध- कान को छेदना।
- यज्ञोपवीत- उपनय (गुरु के पास ले जाना) या जनेऊ संस्कार।
- वेदारंभ- वेदों का ज्ञान देना।
- केशांत- विद्यार्ंभ से पूर्व बालों का अंत यानी मुंडन करना।
- समावर्तन- इसका अर्थ है फिर से लौटना। विद्या प्राप्ति के बाद व्यक्ति का समाज में लौटना समावर्तन है।
- विवाह- इस संस्कार से व्यक्ति पितृ ऋण से भी मुक्त होता है।
- अन्त्येष्टि- अंतिम अथवा अग्नि परिग्रह संस्कार।
होलाष्टक में ज़रूर करें ये काम
हालांकि होलाष्टक में कोई भी शुभ कार्य करना वर्जित होता है लेकिन इस दौरन व्रत, पूजा-पाठ व अपने इष्टदेव की आराधना करना अनिवार्य होता है। मान्यता है कि इस दौरान व्रत व दान करने से नकारात्मक शक्तियां दूर रहती हैं। इस दौरान जितना संभव हो सके उतना अधिक ब्रह्मणों और ज़रूरतमंदों को अन्न, धन, वस्त्रादि दान करें। ताकि आप नकारात्मक शक्तियों के प्रभाव से बचे रहें। इस दौरान वे सभी कार्य करें जिनसे नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
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