नाड़ी दोष एक शास्त्रीय चिन्तन
Ganesh Tripathi | 01-Sep-2014
Views: 35695भारतीय सनातन परम्परा में धर्म अर्थ काम त्रिविध पुरूषार्थं सिद्धि के लिये तथा सर्वश्रेष्ठ गृहस्थ आश्रम के निर्वाह के लिये विवाह संस्कार कि नितान्त आवश्यकता होती है। विविध परीक्षणों से यह सिद्ध होता है कि वैदिक विधि से तथा ज्योतिष शास्त्रीय मेलापक द्वारा किये गये विवाह चिरकाल तक निर्बाध रूप से स्थायी होते हैं। विवाह पूर्व वर एवं बधू के जन्मनक्षत्रों का ज्योतिषीय विधि से विविध प्रकार का परीक्षण किया जाता है जिसे हम मेलापक, आनुकूल्य या प्रीति कहते हैं। विवाह मेलापक में विविध प्रकार के कूटों का अनुप्रयोग किया जाता है जिनकी संख्या 8, 10, 12, 18, 20, 23 अब तक के व्यक्तिगत शोध अध्ययन से यह ज्ञात हुआ है कि विवाह में समवेत रूप से अधिकतम 23 प्रकार के मेलापक का विचार विवाह पूर्व वर एवं वधू में किया जाता है किन्तु इन सबका प्रयोग सम्बन्धित क्षेत्रों तक ही सीमित है तथा विशेष परिस्थितियों में इनका प्रयोग किया जाता है। जिसमे 4 मेलापक राशि से, 1 मेलापक ग्रह से, 16 मेलापक नक्षत्रों से, तथा आयु एवं शक्ति (प्रेम मेलापक से करते हैं। प्रश्नमार्ग में है -
चत्वारिभिर्भपेनैकं सक्त्या च वयसोडुभिः ।
शोडषेत्यनुकूलानां त्रयोविंशतिरीरिता ।।
इन विविध कूटों के होते हुये भी सम्पूर्ण ज्योतिष वाङ्मय में अष्ट कूटों की ही प्राधानता स्वीकार है। इन सभी कूटों में भी नाडी कूट का विशेष महत्व है क्योंकि ब्रह्मा ने इस स्त्रियों के मंगलसूत्र की तरह बनाया है जिस प्रकार स्त्रियों के कण्ठ में आजीवन पर्यन्त सर्वदा मंलगसूत्र विराजमान रहता है उसी प्रकार विविध कूटों में प्रधान रूप से नाडी कूट विराजमान रहता है -
नाडीकूटं तु संग्राह्यं कूटानां तु शिरोमणिः ।>
ब्रह्मणा कन्यकाकण्ठसूत्रत्वेन विनिर्मितम् ।।
अतः सभी कूटों में नाडी कूट का अवश्य ही विचार करना चाहिये। प्रायः सभी ग्रन्थों में अश्विन्यादि क्रम से आदि मध्य एवं अन्त्य नाडी का ही उल्लेख प्राप्त होता है तथा दैवज्ञ लोग भी इसी त्रिनाडी का प्रयोग विवाह मेलापक में करते हैं किन्तु शास्त्रीय गन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि इसके अतिरिक्त भी और दो प्रकार का नाडी कूट होता है । जिसका सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करना चाहिये। प्रथम है त्रिनाडी, द्वितीय है चतुर्नाडी तथा तृतीय है पंचनाड़ी। इस सभी प्रकार के नाडी कूटों का हम विशेष रूप से वर्णन क्रमशः करेंगे।
त्रिनाड़ी कूट -
त्रिनाडी कूट का ही सर्वत्र प्रचार एवं प्रसार दिखाई देता है। क्योंकि यह ज्ञान विधि में अत्यन्त सरल एवं सहज है समाज में यह देखा जाता है कि जो वस्तु सरल है उसी का प्रयोग प्रायः सभी लोग करते हैं जैसे विंशोत्तरी दशा। दशायें तो बहुविध है किन्तु सरल एवं सहज होने के कारण प्रायः सर्वत्र इसी का प्रयोग लोग करते हैं। वराहमिहिर ने भी विंशोत्तरी दशा का उल्लेख नहीं किया है। उन्होनें ग्रहानीत आयु को ही ग्रह दशा प्रमाण स्वीकार्य किया है। त्रिनाडी कूट का सम्बन्ध जीवन दायी श्वास एवं प्रश्वास से है । आयुर्वेद शास्त्र में प्रतिपादित इडा पिंगला सुषुम्ना नाडी का प्रयोग किया जाता है जिसके प्रतिकूल होने पर शरीर में विभिन्न प्रकार की व्याधियां उत्पन्न होती है। अतः यदि वरवधू के जन्म नक्षत्र जन्य नाडीयों में भी प्रतिकूलता होती है तो विवाह अशुभ होता है। त्रिनाडी कूट में आदि मध्य एवं अन्त्य तीन प्रकार के नक्षत्रों का विभाजन क्रमशः अश्विन्यादि क्रम से सर्पाकार स्वरूप में किया जाता है। जैसा कि अधोलिखित चक्र से स्पष्ट है।
त्रिनाडी चक्र -
आदि | अश्विनी | आद्र्रा | पुनर्वसु | उ0 फा0 | हस्त | ज्येष्ठा | मूल | शतभिषा | पू0भा0 |
मध्य | भरणी | मृगशिरा | पुष्य | पू0 फा0 | चित्रा | अनुराधा | पू0 षा0 | धनिष्ठा | उ0 भा0 |
अन्त्य | कृत्तिका | रोहिणी | आश्लेषा | मघा | स्वाती | विशाखा | उ0 षा0 | श्रवण | रेवती |
उपर्युक्त चक्र के आधार पर किसी की भी नाडी सरलता से जानी जा सकती है यदि किसी का जन्म नक्षत्र आद्र्रा है तो उसकी नाडी आदि होगी। इसी प्रकार अन्य का भी जानना चाहिये। नाडी कूट मिलान में यदि वर एवं वधू की एक ही नाडी हो जाये तो अनिष्ट करने वाली होती है यदि दोनों का जन्मनक्षत्र आदि नाडी में पडे तो पति पत्नी का परस्पर वियोग होता है। यदि दोनों की मध्य नाडी हो तो वर एवं वधू दोनों को मृत्यु तुल्य कष्ट या मृत्यु होती है तथा यदि दोनों की अन्त्यैक नाडी हो जाये तो वैधव्य एवं दुःख करने वाली नाडी होती है। इसी प्रकार मेलापक में नाडी कूट का विचार किया जाता है। यदि दोनों की नाडी भिन्न हो जाये तो किसी प्रकार का दोष नही होता है और वैवाहिक जीवन सुखमय व्यतीत होता है। जैसे पुरूष की नाडी आदि तथा स्त्री की नाडी अन्त्य या मध्य या पुरूष की नाडी मध्य कन्या की अन्त्य या आदि हो । वराह वचन है -
आद्यैकनाडी कुरूते वियोगं मध्याख्यनाड्यमुभयोर्विनाशः ।
अन्त्या च वैधव्यमतीवदुःखं तस्माच्च तिस्रः परिवर्जनीयाः ।।
इसी प्रकार त्रिनाडी कूट का विचार विवाह में किया जाता है किन्तु सूक्ष्म अध्ययन से यह पता चलता है कि जिस पुरुष या स्त्री का जन्म नक्षत्र के चारों चरण एक ही राशि में हो केवल उसी के लिये त्रिनाडी चक्र का विचार करना चाहिये । जैसे अश्विनी एवं भरणी नक्षत्र का चारों चरण मेष राशि में होता है। इसी प्रकार रोहिणी, आद्र्रा, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पू.फा. हस्त, स्वाती, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, श्रवण, शतभिषा, उ.भा., रेवती नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातकों का ही त्रिनाडी चक्र से विचार किया जाता है अन्य नक्षत्रोत्पन्न जातकों का नहीं क्योंकि इन नक्षत्रों के चारों चरण एक ही राशि में पडते हैं। प्रमाण है कि -
चतुस्त्रिद्वयङ्घ्रिभोत्थायाः कन्यायाः क्रमशोऽश्विभात् ।
वह्निभादिन्दुभान्नाडी त्रिचतुःपंचपर्वसु ।।
चतुर्नाडी कूट -
जिस प्रकार विवाह मेलापक में त्रिनाडी कूट का विचार किया जाता है उसी प्रकार भिन्न नक्षत्रों में उत्पन्न जातकों के लिये चतुर्नाडी का प्रयोग किया जाता है। जिस प्रकार त्रिनाडी कूट से तीन प्रकार के नक्षत्रों का विभाजन होता है ठीक उसी प्रकार चतुर्नाडी में 28 नक्षत्रों का विभाजन चार प्रकार से किया जाता है। उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि जिस जातक का जन्म तीन चरणों वाले नक्षत्रों में हो उसी के लिये चतुर्नाडी कूट का विचार करना चाहिये। चतुर्नाडी कूट का चक्र इस प्रकार बनता है। जैसे अश्विनी नक्षत्र के चारों चरण मेष राशि में होने से त्रिनाडी कूट का प्रारम्भ अश्विनी से होता है ठीक उसी प्रकार नक्षत्रमाला में जिस प्रथम नक्षत्र का तीनों चरण एक ही राशि में पड़ता हो उससे ही चतुर्नाडी कूट का प्रारम्भ होता है। जैसे सर्वप्रथम कृत्तिका नक्षत्र का तीनों चरण वृष राशि में होने से चतुर्नाडी कूट का प्रारम्भ कृत्तिका से होता है। चक्र इस प्रकार है
-कृत्तिका | मघा | पू. फा. | ज्येष्ठा | मूल | श्रवण | धनिष्ठा |
रोहिणी | आश्लेषा | उ.फा. | अनुराधा | पूर्वाषाढा | उ.भाद्रपद | रेवती |
मृगशिरा | पुष्य | हस्त | विशाखा | उत्तराषाढा | पूर्वा भाद्रपद | अश्विनी |
आद्र्रा | पुनर्वसु | चित्रा | स्वाती | अभिजित् | शतभिषा | भरणी |
जिस प्रकार त्रिनाडी चक्र में वर एवं वधू दोनों का जन्म नक्षत्र एक नाडी में पड़ने से अनिष्ट कारक होता है उसी प्रकार चतुर्नाडी कूट में भी वर एवं वधू दोनों का जन्म नक्षत्र एक नाडी में हो तो अनिष्ट कारक होता है। यह चतुर्नाडी विचार सूक्ष्म रूप से उन जातकों के लिये किया जाता है जिन जातकों का जन्म नक्षत्र तीन चरणों वाला हो अर्थात् जिन नक्षत्रों का तीनों चरण एक ही राशि में पड़ता हो। इस प्रकार कृत्तिका, पुनर्वसु, उ.फा., विशाखा, उत्तराषाढा, पूर्वा भाद्रपद नक्षत्रों में जन्मे जातकों के लिये ही चतुर्नाडी कूट का प्रयोग किया जाता है। पुनश्च देश भेद से अहल्या क्षेत्रों में (दिल्ली के आस पास स्थित कुरूदेश का समवर्ती प्रदेश उत्पन्न हुये वर एवं वधू के लिये विशेष रूप से चतुर्नाडी का प्रयोग करना चाहिये ऐसा शास्त्रवचन प्रमाण है क्योकि ज्योतिष शास्त्र को बिना शास्त्रप्रमाण से कहने वाले लोगों को ब्रह्म हत्या का दोष लगता है। अतः उपरोक्त दोनों विधि से जन्म लेने वाले पुरूष एवं स्त्री के लिये चतुर्नाडी का प्रयोग करना चाहिये। एक नाडी से भिन्न नाडी में विवाह शुभ होता है ।
चतुर्नाडी त्वहल्यायां पांचाले पंचनाडीका ।
त्रिनाडी सर्वदेशेषु वर्जनीया प्रयत्नतः ।।
पंचनाडी कूट -
त्रिनाडी कूट एवं चतुर्नाडी कूट की तरह ही पंच नाडी कूट का प्रयोग किया जाता है। जिस प्रकार त्रिनाडी कूट में नक्षत्रों को तीन भागों मे बांटा गया था और चतुर्नाडी कूट में चार भागों में बाटा गया था ठीक उसी प्रकार पंचनाडी कूट में नक्षत्रों का पांच भागों में बांटकर वर्गीकरण किया गया है। पूर्वोक्त श्लोक से स्पष्ट है कि जिस नक्षत्र को दो चरण एक ही राशि में पडते हो उसी नक्षत्र से पंच नाड़ी की गणना प्रारम्भ की जाती है। जैसे नक्षत्रमाला में सर्वप्रथम मृगशिरा नक्षत्र का दो चरण एक ही राशि में पडता है अतः पंच नाडी कूट का गणना भी मृगशिरा से प्रारम्भ किया जाता है । पंचनाड़ी कूट का चक्र इस प्रकार है -
मृगशिरा | हस्त | चित्रा | श्रवण | धनिष्ठा | रोहिणी |
आद्र्रा | उ.फा. | स्वाती | उ. षा. | शतभिषा | कृत्तिका |
पुनर्वसु | पू.फा. | विशाखा | पू. षाढा | पूर्वाभाद्रपद | भरणी | >
पुष्य | मघा | अनुराधा | मूल | उत्तराभाद्रपद | अश्विनी | >
आश्लेषा | > | ज्येष्ठा | > | रेवती | > | >>
इस प्रकार से पंचनाड़ी कूट का विभाजन किया जाता है जिस प्रकार त्रिनाड़ी एवं चतुर्नाड़ी में एक ही नाड़ी में वर एवं वधू के जन्म नक्षत्र होने से अनिष्टकर होता है ठीक उसी प्रकार पंचनाड़ी में भी एक ही नाड़ी में दोनों के जन्म नक्षत्र होने से नाडी कूट अनिष्टकर होता है भिन्न नक्षत्र होने से विवाह शुभ होता है। जिस वर एवं वधू का जन्म दो चरणों वाले नक्षत्रों में हो केवल उन्हीं के लिये पंच नाडी कूट का प्रयोग करना चाहिये जैसे मृगशिरा, चित्रा, एवं धनिष्ठा में जन्म लेने वाले जातको के लिये पंच नाड़ी कूट का प्रयोग करना चाहिये तथा चश्देश भेद से भी पंच नाडी का प्रयोग क्षेत्र विशेष में करना चाहिये उपर्युक्त वचन से स्पष्ट है कि पंचनाडी का प्रयोग केवल पांचाल देश (आधुनिक रूहेलखण्ड में उत्पन्न वर एवं वधू के लिये करना चाहिये अन्य देशोत्पन्न जातकों के लिये नहीं करना चाहिये। केवल इन दोनों परिस्थितियों में ही पंच नाड़ी का प्रयोग करना चाहिये। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्रीय शोध विश्लेषण के आधार पर विभिन्न परिस्थितियों विभिन्न नाडी कूट का प्रयोग करना चाहिये ऐसा ज्योतिष शास्त्र का निर्देश है ।
सर्वनाडी कूट परिहार -
विवाह मेलापक मे नाड़ी कूट की महत्ता को स्वीकार्य करते हुये अनुकूल मिलान होने पर इसे सर्वोत्तम अंक 8 प्रदान किया गया है तथा यदि वर एवं वधू दोनों का प्रतिकूल नाड़ी कूट मिलान होने पर 0 अंक प्रदान किया जाता है। ऐसी परिस्थिति में नाडी कूट के दोष से बचने के लिये हमें विविध प्रकार के परिहारों की आवश्यकता पड़ती है जिससे नाडी कूट के दोषों से तो नहीं बचा जा सकता किन्तु उसके गुण धर्म में विशेष प्रकार की अल्पता अनुभव प्रयोग में दिखाई पडती है। अतः नाडी कूट के कतिपय परिहार यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं जिनके आधार पर नाड़ी कूट जन्य दोषों का निवारण शास्त्रीय आधार पर सुलभ हो जाता है। वर एवं वधू दोनों का एक ही नक्षत्र नाड़ी विभाग में जन्म नक्षत्र होने पर नाडी दोष होता है अतः उसका सर्वप्रथम परिहार नक्षत्र एवं राशि द्वारा ही किया जाता है।
- यदि दोनों का जन्म नक्षत्र एक पाश्र्व नाडी गत (भिन्न नक्षत्र हो तथा एक राशि हो तो नाडी दोष का परिहार हो जाता है जैसे कृत्तिका एवं रोहिणी की अन्त्य नाडी है किन्तु राशि मिथुन हो जाने से इसका परिहार हो जाता है ।
- यदि दोनों का नक्षत्र एक हो किन्तु राशि भिन्न हो तो नाडी दोष का परिहार हो जाता है जैस कृत्तिका नक्षत्र में दोनों का जन्म होने से अन्त्य नाडी है किन्तु राशि मिथुन एवं कर्क भिन्न हो जाने से परिहार हो जाता है। ये दोनों परिस्थिति केवल पास के नक्षत्रों मे ही संभव दूर के नक्षत्रों मे नही जैसे भरणी एव मृगशिरा नक्षत्र।
- यदि पूर्वोक्त प्रकार से दूर का नक्षत्र हो तो अर्थात् दोनों का जन्म नक्षत्र एक हो (चारों चरण एक राशि में हो तो चरण भेद से नाडी कूट का परिहार हो जाता है। जैसे अश्विनी नक्षत्र मे जन्म होने पर दोनों की आदि नाड़ी होती है। पूर्वोक्त दोनों प्रकार से उसका परिहार नहीं हो पाता है अतः यदि दोनों का चरण भिन्न हो तो नाडी कूट का परिहार हो जाता है जैसा कि मुहूत्र्तचिन्तामणि में कहा है -
राश्यैक्ये चेद् भिन्नमृक्षं द्वयोः नक्षत्रैक्ये राशीयुग्मं तथैव ।
नाडी दोषो न गणानां च दोषः नक्षत्रैक्ये पादभेदे शुभं स्यात् ।।
कुछ नक्षत्र ऐसे होते हैं जो पूर्णतः नाडी दोष से मुक्त होते हैं इन नक्षत्रों मे नाडी दोष प्रभावी नही होता है। जैसे रोहिणी आद्र्रा, मृगशिरा, कृत्तिका, पुष्य, ज्येष्ठा, श्रवण, उत्तरा भाद्रपद, रेवती, नक्षत्रों मे जन्मे पुरूष एवं स्त्री के लिये नाडी दोष प्रभावी नहीं होता है ।
रोहिण्याद्र्रा मृगेन्द्राग्नी पुष्यश्रवणपौष्णभम् ।
अहिर्बुध्न्यक्र्षमेतेषां नाडी दोषो न जायते ।।
इस प्रकार शास्त्रीय वचनों को प्रमाण मान कर के यदि नाड़ी कूट का परिहार किया जाये तो नाड़ी दोष से पूर्णतः मुक्ति मिल सकती है। अतः हमें ज्योतिष शास्त्रीय प्रामाणिक ग्रन्थों का विशेष अध्ययन करने के पश्चात् ही किसी निष्कर्ष पर निर्णय देना चाहिये। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो न जाने कितने ही वैवाहिक दम्पती का जीवन अन्धेरे में डाल देते हैं नाड़ी दोष समाज में सभी जनमानस में समान रूप से विराजमान है किन्तु तथा कथित ज्योतिषीयों द्वारा गलत निर्णय देने से समाज में इस ज्योतिष शास्त्र की प्रतिष्ठा धूमिल होती है। अतः यह हमारा परम दायित्व है कि हम शास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन करें तथा उसका व्यवहारिक प्रयोग करके ही उसे लागु करें। क्योंकि ज्योतिष शास्त्र को भास्कराचार्य ने आदेश शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठित किया है यदि आदेश गलत होगा तो ज्योतिष शास्त्र के वास्तविक स्वरूप में विकृति आयेगी ।
ज्योतिः शास्त्रफलं पुराणगणकैरादेश इत्युच्यते ।