योग निद्रा - अनिद्रा का सटीक उपाय

Gopal Raju | 07-Apr-2014

Views: 8764
Latest-news

दुनियाँ भर की आपाधापी, व्यस्त जीवन, सांसारिक समस्याएं, रोग, शोक, मानसिक अशान्ति, परस्पर उपज रहे क्लेष, द्वेष, ईष्याभाव आदि से हममें से अधिकांश लोग ग्रस्त हैं। इसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव पड़ता है हमारी निद्रा पर और हम अनिद्रा रोग से पीड़ित होने लगते हैं।

♣ अनिद्रा रोग ↓

मानसिक संत्रास, अस्थिरता और अशान्ति आदि कारणों से उपजे इस रोग के कारण शरीर में स्फूर्ति, मन में शान्ति और चेहरे की समस्त आभा और ओज का पलायन हो जाता है। धीरे-धीरे ऐसा लगने लगता है कि हम सदियों के बीमार हों ।

♣ अनिद्रा के कारण ↓

अनिद्रा के कारण शरीर के अन्य अवयवों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ने लगता है और शरीर में परिणाम स्वरूप अन्य अनेकों रोग पनपने लगते हैं । देखा जाए तो यह कोई रोग नहीं है। यह तो स्वयं की पैदा की हुई एक अवस्था है, मनःस्थिति है अथवा कहें कि यह एक मनोभाव है जो शरीर में गहरे पैठकर इनके दुष्परिणाम स्वरूप हमें रोगी बना देता है।

♣ मानसिकता ↓

अपनी मानसिकता यदि हम किसी क्रम-उपक्रम द्वारा बदल लें तो इस तथाकथित् रोग से मुक्ति पाई जा सकती है। इसका एक सरल उपाय तो है कि हम अपनी मानसिकता दिनचर्या से किसी प्रकार ऐसी कर लें कि सोते समय चिन्ता का कोई विषय ही मस्तिष्क में न आने पाए।

♣ चिन्तामुक्त योगनिद्रा ↓

इसको इस प्रकार कहें कि हम स्वयं को चिन्तामुक्त कर लें। क्योंकि मूलतः यह चिन्ता ही है जो हमको सोने नहीं देती। परन्तु जीवन में भरी हुई असंख्य समस्याओं और सबसे ऊपर भौतिकवादी विचारधारा के कारण यह कर पाना इतना सरल नहीं है ।
दूसरा विकल्प है योगनिद्रा अर्थात् अपने श्वसन तंत्र पर नियंत्रण। अनिद्रा रोग के लिए यह एक ऐसा रामवाण उपक्रम है जो हर कोई सहजता, सरलता और सुगमता से अपना सकता है और वह भी बिना किसी जोखिम, बन्धन ,और बिना मोल के। इसके लिए संयम, आत्मविश्वास और लगन के साथ बस थोड़ा सा अभ्यास मात्र करना है हमें।

♣ योगनिद्रा का अभ्यास ↓

धरती पर अथवा किसी कठोर सतह पर एक कम्बल अथवा कोई कपड़ा बिछा लें। लेटने के लिए अपने अनुकूल और भी कोई सुखद विकल्प देखे जा सकते हैं । अपना सिर पूरब, पश्चिम अथवा उत्तर दिशा की ओर करके चित लेट जाएं। मन को एकाग्र करने का यत्न करते हुए गहरे-गहरे श्वास भरते हुए प्राण वायु को नाभी के नीचे तक ले जाने का अभ्यास करें। नाभी के चार अंगुल नीचे एक बिन्दु स्थित है जिसको जापानी भाषा में 'तान्देन' कहते हैं। उनकी मान्यता है कि शरीर में ऊर्जा का सबसे अच्छा और शक्तिशाली स्रोत यह बिन्दु ही है। जितना अधिक श्वास इस बिन्दू पर चोट करेगा उतनी ही अधिक ऊर्जा शक्ति शरीर को पोषित करने में प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होगी। यह क्रिया इसको जाग्रत करना, इसका पूरा विवरण एक अलग विषय है। यहाँ हमें अभ्यास करना है योगनिद्रा का ।

♣ संयमनुसार अभ्यास ↓

श्वास अन्दर लेने और बाहर छोड़ने के क्रम में जब श्वास बाहर छोड़ें तो पेट को पूरी तरह से पिचका लें और जब अन्दर खीचें तो पेट को पूरी तरह से प्राण वायु से भर लें। दूर से देखने वाले को भी लगे कि पेट एक लय में, एक तारतम्य में श्वास के आने और जाने में क्रमशः ऊपर और नीचे गतिशील है। अपने समय और संयमनुसार यह अभ्यास दस-पन्द्रह मिनट अथवा अधिक तक दोहराते रहें। सारा ध्यान और अभ्यास इस बात का करना है कि श्वास पेट के नीचे तक जा रहा है क्योंकि इस श्वास की लयबद्ध गति में ही जीवन और जीव का गुप्त और सुप्त सार-सत छिपा हुआ है। इसको पढ़ना, परखना, समझना और तदनुसार आत्मसात करना है।

♣ ध्यान श्वास पर केन्द्रित ↓

श्वास-निश्वास की इस क्रिया में उसको समझते हुए मन को एकदम शून्य कर ले। कोई भी आचार-विचार मन में शेष न रह जाए। इस स्थिति में आते ही अनुभूत होने लगेगा कि आप पूरी तरह से तनाव मुक्त हैं और शरीर के समस्त अंग तथा स्नायु तंत्र शिथिल अथवा निढ़ाल हो गए हैं। अपनी गर्दन को इस निढ़ाल अवस्था में दाएं अथवा बाएं अपनी आराम की सुविधाजनक स्थिति में झुका लें । सब ध्यान अपनी आने-जाने वाले श्वास पर केन्द्रित कर लें। आप देखें कि क्या आपका मन श्वास पर केन्द्रित होने लगा है। वह साथ-साथ उसके निश्चित पथ पर चलने लगा है। एक समय बाद ऐसी स्थिति आ जाएगी कि आपका मन श्वास के अनुरूप स्थान पर केन्द्रित होने लगा है अर्थात श्वास और मन में तारतम्य स्थापित हो गया है। जहाँ श्वास है वहाँ आप अपने मन को ले जाने में समर्थ होने लगे हैं।

♣ ध्यान क्रमशः अलग-अलग पैर की उँगलियों पर केन्द्रित ↓

अभ्यास करके श्वास को पैरो की उँगलियों में अनुभव करें। ध्यान क्रमशः अलग-अलग पैर की उँगलियों पर केन्द्रित करें। एक-एक उँगली को अनुभव करें कि प्राण ऊर्जा के वहाँ तक पहुँचने पर वह चैतन्य हो रही है। स्वाभाविक है कि प्रारम्भिक अवस्था में श्वास पर नियंत्रण नहीं होगा। और चित्त पर तो बिल्कूल भी नहीं। क्योंकि हमारा सारा अभ्यास और प्राकृतिक क्रम श्वास को केवल फेफड़ों तक ही भरना होता है उससे नीचे नहीं। थोड़े से अभ्यास से यह उससे और नीचे तक जा सकता है और एक अवस्था ऐसी भी आने लगेगी कि उसका प्रवाह पैर की उँगलियों तक स्पष्ट होने लगेगा। उँगलियों को अब निढ़ाल छोड़ दें। श्वास को अब क्रमशः ऊपर की और तक लाने और उस स्थान विशेष पर अनुभव करें कि अब वह स्थान भी निर्जीव हो गया है । क्रमशः ऊपर बढ़ते रहें । घुटने, पेट, छाती दाएं और बाएं हाथ की उँगलिया,ँ गर्दन आदि और प्राण वायु को वहाँ अनुभव करें और निर्जीव कल्पना करें कि वह अंग भी निढ़ाल और निर्जीव होते जा रहे हैं। एक स्थिति ऐसी आ जाएगी जब आपको लगने लगेगा कि समस्त शरीर हल्का, शांत शिथिल और निढ़ाल होकर निर्जीव हो गया है। अस्थि, मांस और भज्जा का पुतला बनकर निढ़ाल पड़ा है-निर्जीव जैसा।

♣ भौतिक शरीर एक दिव्य पुंज ↓

इस अवस्था में पहुँचने पर आपको अनेकों अनुभूतियाँ होना प्रारम्भ हो जाएंगी। लगेगा कि समस्त भौतिक शरीर एक दिव्य पुंज बन गया है। शरीर और ब्रह्माण्ड का रंग एक ही हो गया है। अथवा कहें कि दोनों एक दूसरे में ही समा गये हैं, एक ही हो गए हैं। अभृतवर्षा का अनुभव करेंगे तो लगने लगेगा कि सारा पिण्ड भीग कर सराबोर हो गया है और रोमांच से भरे हुए दिव्यतर लोक में हल्का होकर भ्रमण कर रहा है। यहाँ घण्टे, घड़ियाल और शंखनाद भी सुनाई देने लगे हैं। आप और कुछ नहीं अब एक दिव्य पुंज बनकर रह गए हैं और इतने हल्के हो गए हैं कि कहीं भी भ्रमण कर सकते हैं। कभी लगेगा कि शरीर पुंज एक सूर्य की लालिमा युक्त पिण्ड बन गया है जो कि ऊर्जा, चैतन्यता और दिव्यता से भरा हुआ है। इससे आगे की अवस्थाएं पाना निर्भर करेगा आपकी साधना, आस्था, जीवन जीने की शैली और भौतिकवादी अथवा अध्यात्मवादी आदि विचार धारा पर।

यहाँ से ही समाधि और निद्रा के दो राह प्रशस्त होने लगेंगे। अनिद्रा रोग तो इस अभ्यास के बाद पूर्णतया समाप्त ही हो जाएगा। अब यह आपके ऊपर पूर्णतया निर्भर है कि सुखद नींद के आगोश में चले जाएं अथवा दिव्यता भरी समाधि अवस्था में।